कभी-कभी मन में लगता है, मैं बन जाऊं एक कृष्ण मेघ,
बनके बारिश बरसता रहु ,बरसने का बढ़ता रहे आलेख।
कभी-कभी लगता है बनु एक कवी की कोमल कलम,
जिस कलम से कविताए रिसती रहे,सुन्दर और सक्षम।
कभी-कभी मन में लगता है, मस्त हवा मैं बन जाऊ,
तेरे महकते बदन को छूकर मैं फिर लौटकर आऊ।
कभी-कभी मन में लगता है, तेरा सपना बन जाऊं,
तेरे रंध्रों से उठे रोमांच से मैं भी रोमांचित हो जाऊ।
कभी-कभी मन में लगता है, चाँदनी बन जाऊं,
मेरेलिए
चकोर तरसे अक्सर और उसे मैं मिल जाऊ।
न कोई तृष्णा रहे दिल की और मेरा मन शांत हो,
जिस कैवल्य की चाह एक उम्र से है वो मुझे प्राप्त हो।
शुक्रवार, २२/३/२०२४ , ०५:५५ PM
अजय सरदेसाई (मेघ)
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