वक्त के दरिचों से झाँकू
तो तुम बहुत दूर नज़र आती हो ।
जब
ऑंखें मुंदकर देखु तब तुम मेरे करीब होती हो ।।
तुम
पलछिन में पास तो कभी पलछिन में दूर होती हो।
उलझन
में हूँ, तुम मेरे साथ ये कौन-सा खेल खेलती हो।।
कभी
दरख़्तों की शितल छाव कभी कड़कती धूप होती हो।
अब
तुम ही बताओ की सच क्या है, आखिर तुम क्या हो।।
क्यों
ये वक़्त थम सा जाता है तेरी आँखों में जैसे एक तस्वीर हो।
क्या
तुम आसमाँ हो,बादल हो ,ख़याल हो,आखिर तुम क्या हो।।
क्या
तुम जानती हो,मैं अक्सर क्या सोचता हूँ, के तुम क्या हो।
जान
हो,जहान हो या एक सपना हो,आखिर तुम क्या हो।।
रविवार , १७/०३/२०२४ , ०२:३० PM
अजय सरदेसाई (मेघ )
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