प्रस्तावना

मला कविता करावीशी वाटते , पण जी कविता मला अभिप्रेत आहे , ती कधीच कागदावर अवतरली नाही . ती मनातच उरते , जन्माच्या प्रतीक्षेत ! कारण कधी शब्दच उणे पडतात तर कधी प्रतिभा उणी पडते .म्हणून हा कवितेचा प्रयास सतत करत असतो ...........
तिला जन्म देण्यासाठी , रूप देण्यासाठी ,शरीर देण्यासाठी ......
तिला कल्पनेतून बाहेर पडायचे आहे म्हणून
....

Thursday 15 February 2024

मैं समझ नहीं पाया



आज़ तक तिरी ऑंखो का नशा दिल से उतर नहीं पाया।
आज तक तिरी जुल्फ़ों की उलझनों से उभर नहीं पाया।।१ ।।

अंजान दिशाओं से ठंडी हवाएं तेरी खुशबू लिए आयी।
इक उम्र गुज़र गयी है ज़ालिम, मैं होश में पाया।।२।।

तेरे हर सितम मैं सरआँखों पर लिए फिरता हूँ ।
मेरे दिल के घाव मैं आज तक दिखा पाया।।३।।

जिंन्दा भी हूँ अगर तो इस तरह के कोई ज़िन्दगी नहीं।
जैसे बुझता हुआ चराग़ कोई रौशनी कर पाया।।४।।

इश्क वो बला है "मेघ" जिसे छु जाए बर्बाद ही कर देती है।
मैं नादान था,लाख समझाया लोगों ने,मैं समझ नहीं पाया।।५।।
 
शुक्रवार , १६//२०२४ , ११:५१ AM
अजय सरदेसाई (मेघ)


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