प्रस्तावना

मला कविता करावीशी वाटते , पण जी कविता मला अभिप्रेत आहे , ती कधीच कागदावर अवतरली नाही . ती मनातच उरते , जन्माच्या प्रतीक्षेत ! कारण कधी शब्दच उणे पडतात तर कधी प्रतिभा उणी पडते .म्हणून हा कवितेचा प्रयास सतत करत असतो ...........
तिला जन्म देण्यासाठी , रूप देण्यासाठी ,शरीर देण्यासाठी ......
तिला कल्पनेतून बाहेर पडायचे आहे म्हणून
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Saturday 17 February 2024

सफर का ही था मैं बस सफर का ही रहा


 

शहर शहर घूमाता रहा कहीं बसेरा न रहा ।

सफर का ही था मैं बस सफर का ही रहा।।१।।

ज़िन्दगी चलती रही मैं भी चलता रहा।

लोग मिलते रहे कारवॉं बनता रहा।।२।।

धुंदली हो गयी यादें और वक्त बदलता रहा।

एक मुसाफ़िर की तरह मैं बस चलता रहा।।३।।

ओझल ऑंखों से होते गए शहर गॉंव गलियॉं ।

ज़िन्दगी ने मेरी क्या खोया मैं ये सोचता रहा।।४।।

जाने ये सफर कब रूकेगा और मेरे दिल को मिलेगा सुकूँ।

सफर भर मैं यहीं सोचता रहा बस यहीं सोचता रहा।।५।।

 

शनिवार, १७/२/२०२४, १०:२४ PM

अजय सरदेसाई (मेघ)

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