प्रस्तावना

मला कविता करावीशी वाटते , पण जी कविता मला अभिप्रेत आहे , ती कधीच कागदावर अवतरली नाही . ती मनातच उरते , जन्माच्या प्रतीक्षेत ! कारण कधी शब्दच उणे पडतात तर कधी प्रतिभा उणी पडते .म्हणून हा कवितेचा प्रयास सतत करत असतो ...........
तिला जन्म देण्यासाठी , रूप देण्यासाठी ,शरीर देण्यासाठी ......
तिला कल्पनेतून बाहेर पडायचे आहे म्हणून
....

Friday 15 March 2024

और बढे अपनी दूरियाँ


जब तुम पास मेरे नहीं होती सोचता हूँ तुम्हे अक्सर 
तेरी यादों की छांव तले होता है मेरे दिल का बसर
मै जानता हु के तुम भी मुझे मेरे गीतों में ढूंढ़ती हो
मै जानता हु मेरे प्यार का जो तुम पर हुआ है असर
 
क्या बताऊँ मैं किसी को के दिल क्यों है परेशान
अब जन्दगी जीना तुम्हारे बिना मुझे नहीं आसान
रात रात भर अब मुझे नींद जरा भी आती नहीं 
तुम बिन जैसे हमदम जिन्दगी हो गयी वीरान
 
जाने कहा तलख चलेगा हमारे प्यार का सफर 
चाह उठी दिलसे कभी खत्म हो सपनों की डगर
जैसे नदी की धारा मुसलसल बहती है उम्र भर
साथ चलता रहे यूही हमारा और जिन्दगी हो बसर
 
मन है के जा बसा है किसी अंजान एक नगर में
जाने कौन से सपने लेकर बैठा है निगाहों में
मैं एक प्रेम गीत गाऊ,गाकर मैं तुम को सुनाऊ
देखो कैसे दिल जला है मेरा बिरहा की चिता में
 
ये पल जो रुके हुए है हम दोनों के दरमियाँ
जिए इसी में पूरी जिन्दगी और क्या करू बयाँ
दुनियाँ का दस्तूर है जो मिलते वही बिछड़ते है 
जाने कब वक्त चल पड़े और बढे अपनी दूरियाँ

 

शनिवार , १६/०३/२०२४ , १२:१० पं

अजय सरदेसाई (मेघ)


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