शहर शहर घूमाता रहा
कहीं बसेरा न रहा ।
सफर
का ही था मैं बस सफर का ही रहा।।१।।
ज़िन्दगी
चलती रही मैं भी चलता रहा।
लोग
मिलते रहे कारवॉं बनता रहा।।२।।
धुंदली
हो गयी यादें और वक्त बदलता रहा।
एक
मुसाफ़िर की तरह मैं बस चलता रहा।।३।।
ओझल
ऑंखों से होते गए शहर गॉंव गलियॉं ।
ज़िन्दगी
ने मेरी क्या खोया मैं ये सोचता रहा।।४।।
जाने
ये सफर कब रूकेगा और मेरे दिल को मिलेगा सुकूँ।
सफर
भर मैं यहीं सोचता रहा बस यहीं सोचता रहा।।५।।
शनिवार,
१७/२/२०२४, १०:२४ PM
अजय
सरदेसाई (मेघ)
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