प्रस्तावना

मला कविता करावीशी वाटते , पण जी कविता मला अभिप्रेत आहे , ती कधीच कागदावर अवतरली नाही . ती मनातच उरते , जन्माच्या प्रतीक्षेत ! कारण कधी शब्दच उणे पडतात तर कधी प्रतिभा उणी पडते .म्हणून हा कवितेचा प्रयास सतत करत असतो ...........
तिला जन्म देण्यासाठी , रूप देण्यासाठी ,शरीर देण्यासाठी ......
तिला कल्पनेतून बाहेर पडायचे आहे म्हणून
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Saturday, 6 September 2025

ग़ज़ल:अहबाब भी तिरी अदा सिख गए हैं


अहबाब भी तिरी अदा सिख गए हैं।
आते हैं, तो दिल दुखाकर ही जाते हैं।।

 

क्या तिरी नर्म बाहों में मैं पिघल जाऊंगा।
ऐसा करते हैं, क्यो न आजमाईश कर लेते हैं।।

 

महव-ए-ख्वाब से अभी-अभी जगा हूँ।

क्यूँ न अब जरा हकिकत में जी लेते हैं।।

 

पहले एक-दूसरे से वाकिफ़ नहीं थे हम।

इजाजत है तो एक-दूसरे को जान लेते हैं।।

 

तिरी शोखियों ने बड़ा सताया है मुझे।

चलो फिर, तुम्हें 'जिंदगी' का नाम देते हैं।।

 

तिरे रुक्सार का रंग यु उड़ा उड़ा सा क्यो है।

तु कहे तो गुलाबों की गुलाबी चुरा लेते हैं।।

 

'मेघ' तू रातभर इंतजार में बेदार हुआ।

तो सो कर जरा, अब आराम कर लेते हैं।।

 

अहबाब = मित्र गण , पहचान वाले
हकिकत  =वास्तव
महव-ए-ख्वाब = ख़्वाबों में खोया हुआ
वाकिफ़ = जानना
वाकिफ़ = जानना,पहचानना
शोखियां = चंचलता
रुक्सार = गाल
बेदार = जागना

 

गुरुवार, ४/९/२५ , ४:३५ PM

अजय सरदेसाई -मेघ


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