अहबाब भी तिरी अदा सिख गए
हैं।
आते हैं, तो दिल दुखाकर ही जाते हैं।।
आते हैं, तो दिल दुखाकर ही जाते हैं।।
क्या तिरी नर्म बाहों में मैं पिघल जाऊंगा।
ऐसा करते हैं, क्यो न आजमाईश कर लेते हैं।।
ऐसा करते हैं, क्यो न आजमाईश कर लेते हैं।।
महव-ए-ख्वाब से अभी-अभी जगा हूँ।
क्यूँ न अब जरा हकिकत में जी लेते हैं।।
पहले एक-दूसरे से वाकिफ़ नहीं थे हम।
इजाजत है तो एक-दूसरे को जान लेते हैं।।
तिरी शोखियों ने बड़ा सताया है मुझे।
चलो फिर, तुम्हें 'जिंदगी'
का नाम देते
हैं।।
तिरे रुक्सार का रंग यु उड़ा उड़ा सा क्यो है।
तु कहे तो गुलाबों की गुलाबी चुरा लेते हैं।।
'मेघ' तू रातभर इंतजार में बेदार हुआ।
तो सो कर जरा, अब आराम कर लेते हैं।।
अहबाब = मित्र गण , पहचान वाले
हकिकत =वास्तव
महव-ए-ख्वाब = ख़्वाबों में खोया हुआ
वाकिफ़ = जानना
वाकिफ़ = जानना,पहचानना
शोखियां = चंचलता
रुक्सार = गाल
बेदार = जागना
हकिकत =वास्तव
महव-ए-ख्वाब = ख़्वाबों में खोया हुआ
वाकिफ़ = जानना
वाकिफ़ = जानना,पहचानना
शोखियां = चंचलता
रुक्सार = गाल
बेदार = जागना
गुरुवार, ४/९/२५ , ४:३५ PM
अजय सरदेसाई -मेघ
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