प्रस्तावना

मला कविता करावीशी वाटते , पण जी कविता मला अभिप्रेत आहे , ती कधीच कागदावर अवतरली नाही . ती मनातच उरते , जन्माच्या प्रतीक्षेत ! कारण कधी शब्दच उणे पडतात तर कधी प्रतिभा उणी पडते .म्हणून हा कवितेचा प्रयास सतत करत असतो ...........
तिला जन्म देण्यासाठी , रूप देण्यासाठी ,शरीर देण्यासाठी ......
तिला कल्पनेतून बाहेर पडायचे आहे म्हणून
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Sunday, 27 July 2025

ग़ज़ल : ख़ामोशियों की ये क़ीमत पाई हैं

 

मतला:


तल्ख़ियाँ जो उसकी आँखों में दिखाई हैं।

शायद मिरी मोहब्बत में ही कुछ कमी आई हैं।।

 

ज़िक्र उसका न किया दिल की ख़लिश कहने को।

वरना लबों पे बहुत सी बातें उभर आई हैं।।

 

आँधियाँ वक़्त की दिल पर गिरीं इस क़दर।

ख़्वाहिशों की जो चिंगारियाँ थीं, बुझाई हैं।।

 

उसकी आँखों में नमी देख के ये जाना मैंने।

हमने चाहत की जो तस्वीर थी, मिटाई हैं।।

 

मक़्ता:


मेघ’ यूँ ही नहीं टूटी ये तमाम कड़ियाँ।

सालों की ख़ामोशियों की ये क़ीमत पाई हैं।।


 रविवार, २७/७/२५ , २:५६ PM
अजय सरदेसाई -मेघ

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