ग़ज़ल: खामोशी सजाना बाकी है
मत्ला:
कोई ख़्वाहिश न कोई फ़रमाइश बाकी है।
ज़िंदगी में अब और क्या होना बाकी है।।
कोई ख़्वाहिश न कोई फ़रमाइश बाकी है।
ज़िंदगी में अब और क्या होना बाकी है।।
मर तो हम तब गए थे,जब य़कीं तूटा।
जिस्म से बस अब जान जाना बाकी है।।
तुझसे शिकवा न कोई मलाल रहा बाकी।
बस ये टूटा दिल है,इसे समझाना बाकी है।।
धिरे धिरे हर अंग हुआ रुसवा मुझसे।
बस इक सांस रुकी है,उसे जाना बाकी है।।
मक़्ता:
'मेघ’अब और कुछ आरज़ू नहीं मिरी कब्र की।
सिर्फ़ इक ख़ामोशी जुरुरी है, उसे सजाना बाकी है।।
'मेघ’अब और कुछ आरज़ू नहीं मिरी कब्र की।
सिर्फ़ इक ख़ामोशी जुरुरी है, उसे सजाना बाकी है।।
मंगलवार, २९/७/२५ , १०:२१ PM
अजय सरदेसाई -मेघ
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