ब्रह:मफ़ा'ईलुन मफ़ा'ईलुन मफ़ा'ईलुन मफ़ा'ईलुन
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नाकामी मोहब्बत में मेरी अभी मुकम्मल नहीं हुई,
शायद इसीलिए ग़ज़ल भी मेरी मुकम्मल नहीं हुई।
दिल तो आया है कई बार हुस्न पर मेरा।
मगर इश्क़ में बेबसी अब तक मुकम्मल नहीं हुई।।
उस चाँद से तो रवानी बढ़ने लगी है अब।
मगर चाँदनी से पहचान अभी मुकम्मल नहीं हुई।।
वो शगुफ़्ता जो लबों पर बेशुमार लुटाई गई।
क्यों आँखों की गहराइयों से अब तक मुकम्मल नहीं हुई।।
हुस्न और जिस्म तो फ़ानी हैं, कोई उस हसीना को समझाए।
रूह से रूह की मोहब्बत ज़रूरी है ,जो अब तक मुकम्मल नहीं हुई।।
'मेघ' तिरि दास्ताँ है अधूरी सी अब तलक।
इश्क की इम्तिहानी है ,जो अब तक मुकम्मल नहीं हुई।।
बुधवार -२३/७/२५ , ११:२० PM
अजय सरदेसाई -मेघ
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