इन सिलवटों से शर्माना
कैसा, ये तो ने’मत है।
उम्रदराज़ों के तजुर्बे की चुकाई हुई क़ीमत है।।
आईना जब भी देखो, अक्स कहता है।
वल्लाह, चेहरे पर छाई हुई क्या
जिनत है।।
ये धूप, ये छाँव, ये मौसम के नक़्श चेहरे पर।
हर एक लम्हे की तारीख़ की नक़्शियत है।।
लबों पे हँसी और आँखों में ठहरा समुंदर।
बयां न हो सके जो, वो अश्कों की अदबीयत है।।
जो झुकी हैं पलके, वो सजदे नहीं तो क्या हैं।
ये झुर्रियाँ इबादत की बसी हुई सूरत है।।
'मेघ' अब आईना देख सोचता है क्या शख्शियत है।
कि वक्त की मार में भी चेहरे पे मोहब्बत है।।
बुधवार - २३/७/२५ , १२:०५ PM
अजय सरदेसाई -मेघ
No comments:
Post a Comment