मतला:
जब शीशा-ए-दिल टूटा तो कोई आवाज़ न हुई,
शीशा-ए-जाम जो टूटा तो बड़ी तेज़ आवाज़ हुई।।
दिल के टूटने का न किसी को दर्द हुआ, न मलाल,
प्याला हाथों से जो फिसला, मयख़ाने में आवाज़ हुई।।
लोग दिल की ख़ामोश दरारों को नहीं समझ पाए,
जाम की दरार पर मगर हर तरफ़ आवाज़ हुई।।
रूह के ज़ख़्मों का कहीं चर्चा न हुआ यहाँ,
जाम छलकते ही हर महफ़िल में आवाज़ हुई।।
भरोसा तोड़कर वो मुस्कुराकर चल दिए ख़ामोश,
जाम जो टूटा तो सबने कहा – ये कैसी आवाज़ हुई।।
मक़ता:
‘मेघ’ दिल की टूटन पे कोई आह भी न सुनी किसी ने,
प्याला गिरा तो हर तरफ़ अफ़सोस की आवाज़ हुई।।
रविवार २७/७/२५ — ६:२४ PM
अजय सरदेसाई — 'मेघ'
No comments:
Post a Comment