प्रस्तावना

मला कविता करावीशी वाटते , पण जी कविता मला अभिप्रेत आहे , ती कधीच कागदावर अवतरली नाही . ती मनातच उरते , जन्माच्या प्रतीक्षेत ! कारण कधी शब्दच उणे पडतात तर कधी प्रतिभा उणी पडते .म्हणून हा कवितेचा प्रयास सतत करत असतो ...........
तिला जन्म देण्यासाठी , रूप देण्यासाठी ,शरीर देण्यासाठी ......
तिला कल्पनेतून बाहेर पडायचे आहे म्हणून
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Wednesday, 10 July 2024

बेकरार हो रहें हैं

वो जो गैर थे,शायद करिब हो रहे हैं।

वो देखते ही देखते,हम से दूर हो रहे हैं।।

हम क्या सुनाए किसीको बिती अपने दिल की।

हम प्यार करके उनको,कमदिल हो रहे हैं।।

वो जिस गली से भी गुजरे,हमारा ही नाम उछला।

वो प्यार हमसे करके,बड़े मशहूर हो रहें हैं।।

आते थे रोज छत पर, जैसे चाँद फलक पर।

हो अमवासी जैसे,वो आज क्यो छुप रहें हैं।।

बेचैन क्यों है आँखे,किस की राह तक रहे हैं।

बेवजह ही क्यों हम,यु बेकरार हो रहें हैं।

 

बुधवार१०/०७/२०२४  , १०:१० पं

अजय सरदेसाई (मेघ)

 

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