प्रस्तावना

मला कविता करावीशी वाटते , पण जी कविता मला अभिप्रेत आहे , ती कधीच कागदावर अवतरली नाही . ती मनातच उरते , जन्माच्या प्रतीक्षेत ! कारण कधी शब्दच उणे पडतात तर कधी प्रतिभा उणी पडते .म्हणून हा कवितेचा प्रयास सतत करत असतो ...........
तिला जन्म देण्यासाठी , रूप देण्यासाठी ,शरीर देण्यासाठी ......
तिला कल्पनेतून बाहेर पडायचे आहे म्हणून
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Saturday 20 July 2024

यादों की बारात-(१) (वो भी क्या दिन थे)


वो भी क्या दिन थे

जब हम कमसिन थे।

खुशीयों से जिन्दगी भरी थी।

किसी ग़म से वाकिफ थे।

माँ बाप के लाड़ले थे

ऑंखों की उनके नूर थे।

हर ख्वाहिश होती थी पूरी।

किसी ख्वाब से महरूम थे।

जाने कब जवानी आयी।

और उम्र ने फिर ली अंगड़ाई।

अचानक बदल गया जमाना।

और हम जिंदगी के रूबरू थे।

हर राह में पत्थर मिले ,हर मोड़ पे सितम।

माँ बाप का साया सर से उठ चूका था।

और दुश्मन को हम अकेले ही मिले थे।

लड़ना हार मानना , जिंदगी की हक़ीक़त थी।

माँ बाप  की विरासत में हमे यही पूंजी मिली थी।

इसी अनमोल पूजी को लेकर ज़िदगी चली थी।

अब हम माँ बाप बन गए और बच्चे हमारे नूर।

जाने ज़िदगी ले जाएगी कहाँ और कितने दूर।

बचपन का वह जमाना फिर याद रहा है।

माँ बाप का वह प्यार सलोना फिर याद रहा है।

जब माँ बाप के लाड़ले थे

जब ऑंखों की उनके नूर थे।

जब खुशीयों से जिन्दगी भरी थी।

जब किसी ग़म से वाकिफ थे।

वो भी क्या दिन थे

जब हम कमसिन थे।


इस कविता के पुष्प  मेरे माता पिता की सुनहरी यादों को  समर्पित

 

शनिवार    २०/०७/२०२४   ०६:५५ PM

अजय सरदेसाई (मेघ)



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