प्रस्तावना

मला कविता करावीशी वाटते , पण जी कविता मला अभिप्रेत आहे , ती कधीच कागदावर अवतरली नाही . ती मनातच उरते , जन्माच्या प्रतीक्षेत ! कारण कधी शब्दच उणे पडतात तर कधी प्रतिभा उणी पडते .म्हणून हा कवितेचा प्रयास सतत करत असतो ...........
तिला जन्म देण्यासाठी , रूप देण्यासाठी ,शरीर देण्यासाठी ......
तिला कल्पनेतून बाहेर पडायचे आहे म्हणून
....

Saturday, 6 September 2025

सपनों का घर टूट गया


शेर १:

न जाने क्यों हमारा आईना यूँ टूटकर बिखर गया।

जो अक्स था परिवार का, वो हज़ार टुकड़ों में बंट गया।।

 

शेर २:

हर शख़्स अब ख़ुद की ही बातों में उलझा रहता है।

मोहब्बत का वो धागा, न जाने कब टूटकर कट गया।।

 

शेर ३:

एक वक़्त था दीवारें घर की उसकी चहक से गूंजतीं।

अब खामुशी का साया है, घर का घरपन टूट गया।।

 

शेर ४:

ख़्वाबों की जो रौनक थी, उसने भी साथ छोड़ा है।

परी-सी जो बिटिया थी घर की, उसका दिल भी टूट गया।।

 

शेर ५:

हर शख्स अब तलाशेगा उजाले, किसी नए आईने में।

सुना नही जो टूटा एक बार, फिर से वापस जुड़ गया।।

 

शेर ६:

मगर जो परी थी सलौनी,दो हिस्सों मे बट गयी।

घर उसके सपनों का जो बिचो-बिच से टूट गया।।


शनिवार , ६/९/२५ , १६:०० hrs
अजय सरदेसाई -मेघ


No comments:

Post a Comment