जिंदगी, क्या तेरे दिल में मुझे
इज़्न-ए-क़याम है।
या फकत तेरे लबों पर मेरा बस नाम है।।
एक उम्र हुई, अंधेरों ने घेरा है मुझे।
इंतजार रौशनी का है, मुझे उसिसे काम है।।
हाथों में मिरी सिलवटें बन गई हैं।
शायद लकीरों का काम अब तमाम है।।
जब भी आईने में देखता हूँ अक्स।
सोचता हूँ, ये कौन शख़्स अल्लाम है।।
जिस्त मिरी इस तलाश में गुज़री।
न जाने कहाँ मेरा मुकाम है।।
‘मेघ’ तू अक्सर ढूंढता रहा ख़ुशी को।
तेरा ढूंढना अब भी नाकाम है।।
गुरुवार,४/९/२५, २:२८ PM
अजय सरदेसाई -मेघ
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