प्रस्तावना

मला कविता करावीशी वाटते , पण जी कविता मला अभिप्रेत आहे , ती कधीच कागदावर अवतरली नाही . ती मनातच उरते , जन्माच्या प्रतीक्षेत ! कारण कधी शब्दच उणे पडतात तर कधी प्रतिभा उणी पडते .म्हणून हा कवितेचा प्रयास सतत करत असतो ...........
तिला जन्म देण्यासाठी , रूप देण्यासाठी ,शरीर देण्यासाठी ......
तिला कल्पनेतून बाहेर पडायचे आहे म्हणून
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Wednesday 17 January 2024

देखु



दिलबर को देखु या नजारों को देखु ।
दोनों प्यारे है पहले किसे देखु।।

माहताब जब भी निकलें फलक पर।
रौशनी में तुम्हें मै जी भर के देखु ।।

दिल्लगियोंसे दिल अब उब चुका है ।
सोचता हूं अब  दिल लगाके देखु ।।

दुश्मनी की मगर कोई ठेच न लगी ।
सोचता हूं दोस्ती कर के देखु ।।

अब तक तो फरेब से ही काम लिया।
सोचता हूं हक़ से भी काम लेके देखु ।।

अक्सर धड़कन मेरी थम सी जाती है ।
जब मैं तुम्हें किसी और के साथ देखु ।।

फासले जो हम तुम में है क्या मिटेंगे ।
सोचता हूं के अपनी हद से गुज़र के देखु ।।

इतना बे-इंतिहा मैं चाहता हूँ तुमको।
सोचता हूं तुमपे इक ग़ज़ल कहके देखु ।।

क्या आजमाकर देखु मुहब्बत तुम्हारी ।
एक दिन तुमसे जरा सा रुठ के देखु ।।

कहते हैं इश्क एक आग का दरिया है।
इस दरिया में एक बार डूब के देखु ।।

जिन्दगी बड़ी बेरंग चल रही है।
कुछ रंगीन ख़्वाब बुन के देखु।।

वक्त जो जाता है फिर आता नहीं।
राह में कुछ यादें क्या समेट के देखु।।

कुछ चांदनी बाकी है मेरे रुह की अभी ।
तु कहे तो फलक पर उसे उड़ा के देखु ।।

कुछ हसीन पल है जो हमने साथ गुजारे।
तुम कहो तो उन पलों को बिखरके देखु।।

देखो वहाँ मेरी राह जा रही है ।
जिन्दगी क्या तुझे वहाँ मोड़ के देखु ।।

तुम ख़्वाब हो या सच हो किसे खबर ।
क्या तुझे बस एक बार मैं छू के देखु।।

 

बुधवार ,१७/१/२०२४ , ११:५१ PM

अजय सरदेसाई (मेघ)


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