ऐ कूज़ागर, तूने मुझे किस मिट्टी से बनाया है।
न आग जला सकी है, न पानी भिगो पाया है।।
पत्थर भी टकराए तो जिस्म मेरा टूटा नहीं।
तुझसे पूछना है कि मुझे क्यों इस तरह बनाया है।।
चार रोज़ का चलन होना था, उम्र-भर का बोझ बना।
इतना सख़्त क्यों बना दिया, ये सफ़र मुझे न भाया है।।
मेरे साथी थे कुछ, एक-एक कर टूट गए।
मुझ पर सितम और उन पर तूने बड़ा करम ढाया है।।
अब इस बदन-ओ-मंजर से जी मेरा उब आया है।
'मेघ' नई शक्ल ओढ़ लूँ अब, इस ख़याल ने बड़ा तड़पाया है।।
सोमवार, १८/८/२५ , ९:४५ PM
अजय सरदेसाई -मेघ
कूज़ागर = potter ( कुंभार)
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