कुछ ख़्वाब जमा रखे थे, सो उड़ा रहा हूँ,
यही दौलत थी मेरी, सो लुटा रहा हूँ।।
तेरी यादों के मंज़र दिल निचोड़ रहे हैं,
एक-एक करके उन्हें मिटा रहा हूँ।।
ज़िंदगी यूँ ही गुज़र जाती तो अच्छा था,
मगर तेरी बेदिली का बोझ उठा रहा हूँ।।
इश्क़ तुझसे करना रास आया न मुझे,
अब उसी ख़ता की सज़ा पा रहा हूँ।।
इश्क़ वालों को दर्द नसीब है — यही निज़ाम है,
मेघ, विरासत जो मिली, उसे निभा रहा हूँ।।
रविवार, १७/८/२५ , ६:१५ PM
अजय सरदेसाई -मेघ
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