रंजिशी ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ।
आ फिर से मुझे, छोड़ के जाने के लिए आ।।
तआरुफ़ एक उम्र से, खुशी से मेरा नहीं।
दर्द से ही,मुतारफ मुझे करने के लिए आ।।
है समझते लोग के तुझे कोई मोहब्बत मुझसे नहीं।
मेरा न सही,उनका ये भरम ही तोड़ने के लिया आ।।
कई दिनों हुए मायूस बैठा है आफ़ताब फलक पर।
ऐ राहत-ए-जाँ ,उस मायूसी को तो मिटने के लिए आ।।
दुनिया का तुज पर ये इलज़ाम है, के तू बेवफा है।
कुछ और नहीं तो ज़िल्लत को इस मिटने के लिए आ।।
मैं रिन्द हूँ,मुझे तेरा ही सहारा है उम्र भर।
तू बनकर सकी ,ये सहारा देने के लिए आ।।
ये दिल्लगी नहीं,दिल की लगी है जालिम।
दिल की लगी ये प्यास बुझाने के लिए आ।।
कब से ये आँखें तिरी इंतज़ार में है तक रही।
ऐ राहत-ए-हयात ,इन आँखों की राहत के लिए आ।।
सोमवार , १९/०८/२०३४ १२:०३ PM
अजय सरदेसाई (मेघ)
No comments:
Post a Comment