तिरे लिखे हुए नज़्मों की तल्खियां मुझे नजर आती है।
चाहे कितनी भी पि रखी हो मैंने, दिल चिर जाती है।।
ये अल्फ़ाज़ है जो लिखे है या शमशेर की धार है।
कितनी आसानी से झुठ का पर्दाफाश कर जाती है।।
दर्द-ओ-ग़म दिलकश है दौनो, इनसे जिंदगी की रौनक बढ़ती है।
इन्ही दौनो की बाहों में तो सुकून से जिन्दगी सो जाती है।।
लज़्ज़त-ए-अदा ,एक बार तू मेरी आंखों में आके तो देख।
न जाने क्यों तैरने को तुम्हें नदी की जरूरत पड़ जाती है।।
वो तो अच्छा है,तिरी नज़्मों ने मुझे भिगो दिया बिल्कुल।
वर्ना ये बारिश तो युही बरस कर गुजर जाती है।।
शुक्रवार २३/८/२०२४ १२:२५ PM
अजय सरदेसाई (मेघ)
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