कभी कभी आंखों से नदी बहती है।
यह सोच के,की हम नदी के दो किनारे है ।।
किनारे कभी भी मिलते नहीं।
बगैर किनारों के नदी भी नहीं।।
काश के नदी को कोई किनारा होता नहीं ।
काश के तू हिंदू और मै मुसलमान होता नहीं ।।
हमारी तालिम ये इजाजत हमें देती नहीं ।
हमे एक दूसरे से कोई सरोकार होता नहीं ।।
तिरी जुबान पर राम,और मिरी अल्लाह होता है।
न जाने क्यों फिर भी नजरों में इन्सान होता नहीं ।।
मस्जिद और मंदिर तो फानी है,ढल जाएंगे।
तेरा मेरा बसेरा भी यहाँ , दोस्त नाफानी नहीं ।।
शुक्रवार २३/८/२०२४
१०:२३ AM
अजय सरदेसाई (मेघ)
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