प्रस्तावना

मला कविता करावीशी वाटते , पण जी कविता मला अभिप्रेत आहे , ती कधीच कागदावर अवतरली नाही . ती मनातच उरते , जन्माच्या प्रतीक्षेत ! कारण कधी शब्दच उणे पडतात तर कधी प्रतिभा उणी पडते .म्हणून हा कवितेचा प्रयास सतत करत असतो ...........
तिला जन्म देण्यासाठी , रूप देण्यासाठी ,शरीर देण्यासाठी ......
तिला कल्पनेतून बाहेर पडायचे आहे म्हणून
....

Friday, 15 September 2023

दिवाने थे दिवाने ही रहें


कुछ भी नहीं बदला दिवाने थे दिवाने ही रहें।

नए नए शहरों में ता-उम्र आब--दाना ढुंडते रहें।।

 

बना सके एक आशियाना अपने लिए कोई

जिस शहर से गुजरे वहाँ अंजाने थे अंजाने ही रहें

 

हमने अब  मैकदे में घर बसा लिया हैं अपना

शाम हुई तो चिराग़ जलते गए और जलाते रहें।

 

बज्म--महफिल में अब क्या बाकी रहा हैं।

कुछ उनकी सुनते रहे कुछ अपनी सुनाते रहे।।

 

और फिर जब ग़म--हिज्र--रात उफान पर रहें  

सारी दुनिया सो गयी और हम रात भर पीते रहें ।।


शुक्रवार , १५/०९/२०२३ , २२:२० PM

अजय सरदेसाई (मेघ)


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