कुछ भी नहीं
बदला दिवाने थे दिवाने ही
रहें।
नए
नए शहरों में ता-उम्र
आब-ओ-दाना ढुंडते
रहें।।
न बना सके एक
आशियाना अपने लिए कोई
।
जिस
शहर से गुजरे वहाँ
अंजाने थे अंजाने ही
रहें ।।
हमने
अब मैकदे
में घर बसा लिया
हैं अपना ।
शाम
हुई तो चिराग़ जलते
गए और जलाते रहें।।
बज्म-ए-महफिल में
अब क्या बाकी रहा
हैं।
कुछ
उनकी सुनते रहे कुछ अपनी
सुनाते रहे।।
और
फिर जब ग़म-ए-हिज्र-ओ-रात उफान
पर रहें ।
सारी
दुनिया सो गयी और
हम रात भर पीते रहें ।।
शुक्रवार , १५/०९/२०२३ , २२:२० PM
अजय सरदेसाई (मेघ)
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