अफ़सोस इसी का है की दिल को उनसा दर्द नहीं होता
वर्ना नाम हमारा भी मिर-ओ-ग़ालिब सा तारीख में होता I
ये
बात और है के शेर-ओ-शायरी हम भी कर लेते है
ऐ
खुदा काश हमारे पास भी उनसा रंग-ओ-बहर होता I
कौनसी
वो तिश्नगी है जो पि जाते है मिर दर्द-ए-ज़िन्दगी
फिर
नैरंग-ए-ख़्याल आता है और एक शेर है पैदा होता I
एक
जमाना हो रखा है मिरि कोशिशों को बावजूद इसके
ऐसा क्यूँकर
है की ग़ज़ल को मिरि न कोई रंग-ओ-बहर होता I
अगर
होते मिर या फिर होते ग़ालिब इस ज़माने में 'मेघ'
कसम
खुदा की मैंने यह इल्म और हुनर उनसे चुराया होता I
बुधवार
, १३/०९/२०२३ , ०५:३६ PM
अजय
सरदेसाई ( मेघ )
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