प्रस्तावना

मला कविता करावीशी वाटते , पण जी कविता मला अभिप्रेत आहे , ती कधीच कागदावर अवतरली नाही . ती मनातच उरते , जन्माच्या प्रतीक्षेत ! कारण कधी शब्दच उणे पडतात तर कधी प्रतिभा उणी पडते .म्हणून हा कवितेचा प्रयास सतत करत असतो ...........
तिला जन्म देण्यासाठी , रूप देण्यासाठी ,शरीर देण्यासाठी ......
तिला कल्पनेतून बाहेर पडायचे आहे म्हणून
....

Tuesday, 29 July 2025

ग़ज़ल : तंगज़र्फ हो जाता हूं


मत्ला:
कोई तुझे देखे तो मैं तंगजर्फ हो जाता हूं।
कोई तुझे चाहे तो मैं तंगजर्फ हो जाता हूं।।

युं तो सब्र बड़ा है मुझमें,आज़माकर देखो मगर।
गरचे कोई बात तेरी हो,तो तंगजर्फ हो जाता हूं।।

बज़्म-ए-मयकदे में गर मय नहीं, तो चल जाता है।
पर तू न हो ए साक़ी,तो तंगज़र्फ हो जाता हूँ।।

पास गर मेरे तुम नहीं,तो कोई बात नहीं मगर।
तू अगर तसव्वुर में भी नहीं,तो तंगज़र्फ हो जाता हूं।।

मक़्ता:
'मेघ',ख़ुदा गर मिरे वजूद को तस्लीम न करे, कोई बात नहीं।
मिरी परस्तिश को जो न क़ुबूले, तो तंगज़र्फ हो जाता हूँ।।

मंगलवार, २९/७/२५ , ८:५४ PM
अजय सरदेसाई -मेघ

ग़ज़ल: खामोशी सजाना बाकी है


 ग़ज़ल: खामोशी सजाना बाकी है

मत्ला:
कोई ख़्वाहिश न कोई फ़रमाइश बाकी है।
ज़िंदगी में अब और क्या होना बाकी है।।

मर तो हम तब गए थे,जब य़कीं तूटा।
जिस्म से बस अब जान जाना बाकी है।।

तुझसे शिकवा न कोई मलाल रहा बाकी।
बस ये टूटा दिल है,इसे समझाना बाकी है।।

धिरे धिरे हर अंग हुआ रुसवा मुझसे।
बस इक सांस रुकी है,उसे जाना बाकी है।।

मक़्ता:
'मेघ’अब और कुछ आरज़ू नहीं मिरी कब्र की।
सिर्फ़ इक ख़ामोशी जुरुरी है, उसे सजाना बाकी है।।

मंगलवार, २९/७/२५ , १०:२१ PM
अजय सरदेसाई -मेघ

ग़ज़ल :मुमकिन ये भी नहीं


मतला:

कोई हसीं हो तुम जैसा,ये तो बहुत मुश्किल है मगर I

हम जैसा कोई आशिक़ हो,मुमकिन ये भी नहीं II

 

उस पर्दानशीं को बेपर्दा करना बहुत मुश्किल है मगर I

उसका इंतजार न हो ,मुमकिन ये भी नहीं II

 

चांदनी फलक पर न हो ,ये तो बहुत मुश्किल है मगर I 

तुम तस्सवुर में न रहो ,मुमकिन ये भी नहीं II

 

ज़िन्दगी कट जाये तुम बिन ,ये तो बहुत मुश्किल है मगर I

बिना इश्क़ किये हम फ़ना हो ,मुमकिन ये भी नहीं II

 

मक़्ता:

'मेघये ग़ज़ल उस तक न पहुंचे, ये तो बहुत मुश्किल है मगर I

तिरे दर्द से वो वाक़िफ़ न हो ,मुमकिन ये भी नहीं  II

 

मंगलवार , २९/७/२५ , ०२:३० PM

अजय सरदेसाई - मेघ

Sunday, 27 July 2025

ग़ज़ल: आवाज़ हुई


मतला:
जब शीशा-ए-दिल टूटा तो कोई आवाज़ न हुई,
शीशा-ए-जाम जो टूटा तो बड़ी तेज़ आवाज़ हुई।।

दिल के टूटने का न किसी को दर्द हुआ, न मलाल,
प्याला हाथों से जो फिसला, मयख़ाने में आवाज़ हुई।।

लोग दिल की ख़ामोश दरारों को नहीं समझ पाए,
जाम की दरार पर मगर हर तरफ़ आवाज़ हुई।।

रूह के ज़ख़्मों का कहीं चर्चा न हुआ यहाँ,
जाम छलकते ही हर महफ़िल में आवाज़ हुई।।

भरोसा तोड़कर वो मुस्कुराकर चल दिए ख़ामोश,
जाम जो टूटा तो सबने कहा – ये कैसी आवाज़ हुई।।

मक़ता:
‘मेघ’ दिल की टूटन पे कोई आह भी न सुनी किसी ने,
प्याला गिरा तो हर तरफ़ अफ़सोस की आवाज़ हुई।।

रविवार २७/७/२५ — ६:२४ PM
अजय सरदेसाई — 'मेघ'

ग़ज़ल: शरारे उभरे


मतला:

ज़ेहन की ख़ामोश सतह पर ये कैसे बुलबुले उभरे।

दिल के कोनों से जैसे कई अनचाहे ख़याल उभरे।।

 

यादों के बंद दरवाज़े खुल गए अचानक।

अतीत की वीरानियों से न जाने कौन से सवाल उभरे।।

 

ख़ामोशी की चादर में दफ़्न थी जो सदियाँ।

उन लम्हों के साए से कुछ दर्द के मंज़र उभरे।।

 

चाहा था रूह ने कि सुकून की नेमत पाए।

मगर तन्हाई में चुपके से ग़म के हवाले उभरे।।

 

वक़्त की ठंडी हवाओं से जब भूली हुई यादें बिखरीं।

यादों की राखों तले कुछ तपते शरारे उभरे।।

 

मक़्ता:

‘मेघ’ वो जो दबे थे सदियों से दिल की गहराइयों में।

आज क्यों तिरे नाम से वो अनकहे जज़्बात उभरे।।

 

रविवार, २७/७/२५ ,४:४० PM

अजय सरदेसाई -मेघ


ग़ज़ल: मजबूरी है


 मतला:

मेरी बेदिली कोई बुज़दिली नहीं है।

ये रवायत नहीं, बस मिरी मजबूरी है।।

 

मुझे आता है मोहब्बत को निभाना।

न निभा पाया, ये मिरी मजबूरी है।।

 

दिल से चाहा था उसे हर एक घड़ी।

अब ये फ़ासला-ए-दिल मिरी मजबूरी है।।

 

किस तरह आँख में अश्क़ों को छुपाएँ।

ये मुस्कुराहट दिल से नहीं, मिरी मजबूरी है।।

 

मक़्ता :

 

जिसे दिल से कभी अपना कहा था ‘मेघ’।

अब उसी को अजनबी कहूँ, मिरी मजबूरी है।।

 

रविवार २७/७/२५ .३:२० PM

अजय सरदेसाई =मेघ

ग़ज़ल : ख़ामोशियों की ये क़ीमत पाई हैं

 

मतला:


तल्ख़ियाँ जो उसकी आँखों में दिखाई हैं।

शायद मिरी मोहब्बत में ही कुछ कमी आई हैं।।

 

ज़िक्र उसका न किया दिल की ख़लिश कहने को।

वरना लबों पे बहुत सी बातें उभर आई हैं।।

 

आँधियाँ वक़्त की दिल पर गिरीं इस क़दर।

ख़्वाहिशों की जो चिंगारियाँ थीं, बुझाई हैं।।

 

उसकी आँखों में नमी देख के ये जाना मैंने।

हमने चाहत की जो तस्वीर थी, मिटाई हैं।।

 

मक़्ता:


मेघ’ यूँ ही नहीं टूटी ये तमाम कड़ियाँ।

सालों की ख़ामोशियों की ये क़ीमत पाई हैं।।


 रविवार, २७/७/२५ , २:५६ PM
अजय सरदेसाई -मेघ

ग़ज़ल :ये पुरानी तस्वीर



मतला

ये पुरानी तस्वीर कितनी सुहानी लगती है।

अब आईना देखूँ तो अपनी ही अक्स बेगानी लगती है।।

 

वक़्त ने कितने रंग चेहरे से उतार दिए।

हँसते लम्हों की याद भी अब कहानी लगती है।।

 

कभी दिल में जो ख्वाब थे,वो तस्वीरो में कैद हैं।

मगर हक़ीक़त की राह अब वीरानी लगती है।।

 

आईनों से मोहब्बत थी हमें बहुत,तकाज़ा उम्र का था।

नज़र मिलाऊँ तो बात वो भी अब बचकानी लगती है।।

 

मक़ता

मेघ’ यादों की किताब खोल के जब देखता हूँ।

हर पन्ने की स्याही अब एक परेशानी लगती है।।

 

रविवार , २७/७/२०२५ , १२:२५ PM

अजय सरदेसाई - मेघ

 

Saturday, 26 July 2025

ये सवाल है


 


तेरा मिलना एक उरूज था और बिछुड़ना एक ज़वाल है।

अब किसे तिरी याद मे रखे दिल के पास, ये सवाल है।।

 

वो जो हँस के दिल में उतर गया, वही ख़्वाब अब मलाल है।

अब मलाल ख़्वाब का करे या अपने दिल का, ये सवाल है।।

 

ये जिंदगी का सफ़र भी, किसी इम्तिहाँ सा लगता है।

जिंदगी के हर सवाल में तिरा ज़िक्र क्यो है, ये सवाल है।।

 

कभी ख्वाब थे जो नज़र में,अब वो ख़याल टोकते हैं बार बार।

किन ख्वाबों ख्यालों को तवज्जो पहले दू अब, ये सवाल है।।

 

‘मेघ’ पूछता है ख़ुदी से,क्या अजब ये मोहब्बत का जमाल है।

उरूज क्या, ज़वाल क्या, निखार किसका ज़्यादा है, ये सवाल है।।

 

रविवार , २७/७/२०२५  , ११:१० AM

अजय सरदेसाई - मेघ

Thursday, 24 July 2025

ग़ज़ल - जाया नहीं करते

 


मतला:

जज़्बात हर कहीं ज़ाहिर करके जाया नहीं करते।

हुस्न बेवफ़ा है इसपर वफ़ाएं जाया नहीं करते।।

 

ख़ामोश रहके दिल की सदा को सुनना बेहतर है।

हर बात ज़बाँ से  कहके फ़साने जाया नहीं करते।।

 

हमने भी कई बार कहा है बहुत कुछ लोगों से लेकिन।

दिल के जख्मों को दिखाकर हम जाया नहीं करते।।

 

तन्हाई में जो आँसू गिरे हैं रूह की गहराई में।

वो राज़-ए-दिल किसी से मिलाके जाया नहीं करते।।

 

उल्फ़त के रास्ते में ख़ता कोई भी हो जाए अगर।

इज़्ज़त के सौदे हर बार तौलकर जाया नहीं करते।।

 

मक़ता

'मेघ' की ख़ामोशी भी एक कहानी बयां करती है।

कुछ राज दिल के ज़ाहिर करके जाया नहीं करते।।

 

गुरुवार , २४/७/२५ , ४:४० PM

अजय सरदेसाई - मेघ


Wednesday, 23 July 2025

मी शरण तुला आली


चांदण्यात चिंब भिजून, मिलनाची रात्र आली,

बाहुपाशात तुझ्या सजणा, मी गलित गात्र झाली।

 

ओठांचा स्पर्श मुलायम, अधरांस झाला जेव्हा,

ज्वाळांच्या उठल्या लाटा, एक विज कडाडून गेली।

 

कानांत तुझं गुणगुणणं, थेट हृदयास भिडलं,

शब्दार्थ लागताच, मला गोड लाज आली।

 

विकल्प कोणता उरला होता माझ्याकडे रे,

ती गोड मागणी अनामीक, रंध्रारंध्रांने केली।

 

श्वासा-श्वासातून उसळली, अग्नीची उत्क्रांती,

मी विसरून गेली मजला... मी शरण तुला आली।

 

बुधवार, २३/७/२५, ६:५४ PM
  अजय सरदेसाई – ‘मेघ’