प्रस्तावना

मला कविता करावीशी वाटते , पण जी कविता मला अभिप्रेत आहे , ती कधीच कागदावर अवतरली नाही . ती मनातच उरते , जन्माच्या प्रतीक्षेत ! कारण कधी शब्दच उणे पडतात तर कधी प्रतिभा उणी पडते .म्हणून हा कवितेचा प्रयास सतत करत असतो ...........
तिला जन्म देण्यासाठी , रूप देण्यासाठी ,शरीर देण्यासाठी ......
तिला कल्पनेतून बाहेर पडायचे आहे म्हणून
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Tuesday 1 October 2024

यहाँ मैंने मासूमियत का अक्सर क़त्ल होते देखा है


इस ख़ुश-फ़हमी में न रहो के चुप रहोगे तो कम्बख्त बच जाओगे,
मैंने देखा है अक्सर खामोश ही पहले कटा करते है।
क्यों की कटते हुए भी वो कभी आवाज़ नहीं करते है,
बस चुपचाप हलाल होते है,चुपचाप हलाल होते है।
वो आंख मुंदे बैठे है इस झुठी तसल्ली में की कुछ दिखा नहीं,
वो ही पहले होंगे जो गले निकाल रो रहे होंगे के कुछ बचा नहीं।
फुल गर मिल रहे है तो कांटों को नजर अंदाज करना,
अक्सर एक कांटा भी नासुर बनाने की फितरत रखता है।
मैं तो चाहूंगा की दिल को तुम जरुर खुला रखना साहब,
मगर नसीहत भी दूंगा के आंखों को भी तुम निगेहबान रखना ।
अम्रित का प्याला अगर बेवजह ही थमाया जाए हातों में,
कही वो जहर तो नहीं इसे पहले सत्यापित करना।
तुम कहोगे की इतनी भी इत्माद आपको क्यों नहीं जनाब ,
क्यों की हम ने भाईचारे को भी चारा बनकर जलते देखा है।
मासूम बनो और रहो कभी ,यह जमाना ठीक नहीं,
यहाँ मैंने मासूमियत का अक्सर क़त्ल होते देखा है।

 

मंगलवार , ०१/०१०/२०२४   , १६:२० PM
 अजय सरदेसाई (मेघ)

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