और रिश्तो॑ की वो नर्म गर्माहट ,
अब कही गुम सी हो गई है I
प॑खुडियो॑को और लफ्जो॑ को कटारी कि धार सी है I
कटने का डर बना रहता है ,
लगता है के बेहतर हो कि
इनसे दुरि मुकम्मल रहे I
मेघ
१८/८/२०२१
२:३८ PM
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इक नमी जो आँखो में थी कभी ,अभ सुक सी गई हैं ,
न जाने कहाँ गुमसुम किसी कोने में सिमट गई हैं
I
पुकारते थे जो रास्ते किसी दौर में मुझे कभी, आवारागर्दी में
न जाने क्यों अकेले चुपचाप , सुमसान चल रहे हैं I
नमकीन ,खट्टी-मिठी यादों के वह सुनहरे पल कुछ
भिखर से गए हैं I
न जाने क्यों रिश्तो॑ के अ॑दाज भी बदल से रहे
हैंI
वक्त तो ठहरता नहीं किसी के लिए , बितता राहता
है I
हर पल जि॑दगी से लम्हे पिघल से रहे हैं I
सवारा॑ था जिन्हें बड़ी शिद्दत से अपने दिल
में कभी,
न जाने क्यों वह अरमां धिरे धिरे टुट से रहे हैं I
मेघ
१८/८/२०२१
७:०० PM
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