मतला
तेरी ज़िंदगी में होना कुछ एहसान नहीं,
जैसे उम्र-दराज़ दरख़्त पे हर पत्ता हरा नहीं।
अक्सर ये सोचता हूँ, ये कैसा रिश्ता बना,
जो महसूस तो होता है, मगर पूरा अपना नहीं।
मौजूद है हर लम्हा, एहसास मगर कम ही रहा,
लगता है जैसे कुछ भी दिल तक उतरा नहीं।
शगुफ़्ता-ए-मौसम उदास है आज बहुत,
मगर उम्मीद कि कली का वक़्त अभी गया नहीं।
मक़ता
मेघ, शिकवा भी किससे करे इस
दिल का,
जब चाहत का ही रिश्ता अभी पूरा नहीं।
बुधवार, १७/१२/२५ , २०:०० hrs.
अजय सरदेसाई -मेघ

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