ख़ामोशी के साए में, गुम एक जहान है,
न गली है,न कली, न कोई गुलिस्तां है।
देखें थे जो ख्वाब सभी मिट गए एक साथ ,
देखो कैसे ज़िंदगी का हर नक़्शा बेज़ुबान है।
चिराग़ जो जलते थे, अब बुझ चुके सभी,
सन्नाटों का मेला है,दोस्त ये कब्रस्तान है।
जिन रास्तों पर क़दमों की आहटें थीं,
वो राहें भी अब जैसे बेनिशान हैं।
शहर-ए-ख़ामोश, तुझसे कोई शिकवा नहीं,
अब कोई दर्द नहीं यहां और न इम्तिहान है।
कहीं न कोई सदा, न कोई पुकार है,
इस वीराने का बस यही गुमान है।
आ, बैठ ले कुछ देर इन खंडहरों के पास,
न जाने किस पत्थर में छुपी कौन सी दास्तान है।
सोमवार , २५/११/२०२४ , ०६:१५ AM
अजय सरदेसाई (मेघ)
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