ये जो बहार-ए-चमन है,लाफ़ानी नहीं है।
ये चंद लम्हों का मेला है,लगकर गुज़र जाना है।
इसपर इतना गुरुर और इतराना कहां अच्छा है।
ख़िज़ां तो हर गुलशन पर आकर ही जाती है ।
आजतक इस दौर से क्या कोई भी छूटा है।
खाक से आते है सभी,खाक में ही मिल जाते है।
यहाँ कौन है जो ताउम्र युहीं जवाँ रहता है।
हाँ, इस बाजार में हुस्न की नुमाइश तो होती है।
हाँ,इस बाजार में हुस्न को खरिदार भी मिलता है।
ये बाजार है ,इसका दस्तूर है ,यहाँ सब कुछ बिकता है।
साफ दिल को मगर यहाँ खरिदार कहां मिलता है।
शुक्रवार , २८/०६/२०२४ ११:३५
अजय सरदेसाई (मेघ)
No comments:
Post a Comment