आज़ तक तिरी ऑंखो का नशा दिल से उतर नहीं पाया।
आज तक तिरी जुल्फ़ों की उलझनों से उभर नहीं पाया।।१ ।।
अंजान दिशाओं से ठंडी हवाएं तेरी खुशबू लिए आयी।
इक उम्र गुज़र गयी है ज़ालिम, मैं होश में न आ पाया।।२।।
तेरे हर सितम मैं सरआँखों पर लिए फिरता हूँ ।
मेरे दिल के घाव मैं आज तक न दिखा पाया।।३।।
जिंन्दा भी हूँ अगर तो इस तरह के कोई ज़िन्दगी नहीं।
जैसे बुझता हुआ चराग़ कोई रौशनी न कर पाया।।४।।
इश्क वो बला है "मेघ"
जिसे छु जाए बर्बाद ही कर देती है।
मैं नादान था,लाख समझाया लोगों ने,मैं समझ नहीं पाया।।५।।
शुक्रवार ,
१६/२/२०२४ , ११:५१ AM
अजय सरदेसाई (मेघ)
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