Thursday, 19 August 2021

कुछ खयाल और पंक्तीयां


फुलो कि वो सौ॑धी महक 

                और रिश्तो॑ की वो नर्म गर्माहट ,

अब कही गुम सी हो गई है I

                प॑खुडियो॑को और लफ्जो॑ को कटारी कि धार सी है I

कटने का डर बना रहता है ,

                लगता है के बेहतर हो कि  इनसे दुरि मुकम्मल रहे I


मेघ

१८//२०२१

:३८ PM

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इक नमी जो आँखो में थी  कभी ,अभ सुक सी गई हैं  ,

न जाने कहाँ गुमसुम किसी कोने में सिमट गई हैं I

        पुकारते थे जो रास्ते किसी दौर  में मुझे कभी, आवारागर्दी में

        न जाने क्यों  अकेले चुपचाप , सुमसान चल रहे हैं I

नमकीन ,खट्टी-मिठी यादों के वह सुनहरे पल कुछ भिखर से गए हैं I

न जाने क्यों रिश्तो॑ के अ॑दाज भी बदल से रहे हैंI

        वक्त तो ठहरता नहीं किसी के लिए , बितता राहता है I

        हर पल जि॑दगी से लम्हे पिघल से रहे हैं I

सवारा॑ था जिन्हें बड़ी शिद्दत से  अपने  दिल में कभी,

न जाने क्यों वह अरमां धिरे धिरे टुट से रहे हैं I


मेघ

१८//२०२१

:०० PM

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